• अल्लामा इक़बाल की मेरी अपनी पसंदीदा तरीन नज़्म शेयर करता हूँ, मुलाहिजा फरमाएं....

    कभी ऐ हक़ीक़त-ए-मुन्तज़र[1]! नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में
    के हज़ारों सज्दे तड़प रहे हैं तेरी जबीन-ए-नियाज़[2] में

    तरब आशना-ए-ख़रोश[3] हो तू नवा है महरम-ए-गोश[4] हो
    वो सरूद[5] क्या के छिपा हुआ हो सुकूत-ए-पर्दा-ओ-साज़[6] में

    तू बचा बचा के न रख इसे तेरा आईना है वो आईना
    के शिकस्ता[7] हो तो अज़ीज़तर[8] है निगाह-ए-आईना-साज़[9] में

    दम-ए-तौफ़ कर मक-ए-शम्मा न ये कहा के वो अस्र-ए-कोहन
    न तेरी हिकायत-ए-सोज़ में न मेरी हदीस-ए-गुदाज़ में

    न कहीं जहाँ में अमाँ[10] मिली जो अमाँ मिली तो कहाँ मिली
    मेरे जुर्म-ए-ख़ानाख़राब[11] को तेरे उफ़्वे-ए-बंदा-नवाज़[12] में

    न वो इश्क़ में रहीं गर्मियाँ न वो हुस्न में रहीं शोख़ियाँ
    न वो ग़ज़नवी में तड़प रही न वो ख़म है ज़ुल्फ़-ए-अयाज़[13] में

    मैं जो सर-ब-सज्दा[14] कभी हुआ तो ज़मीं से आने लगी सदा[15]
    तेरा दिल तो है सनम-आशनाअ[16] तुझे क्या मिलेगा नमाज़ में|


    शब्दार्थ:
    1 ↑ चिर-प्रतीक्षित सच्चाई
    2 ↑ विनम्र माथे
    3↑ स्वयं को आन्नद-मयी ध्वनि में प्रकट कर
    4 ↑ अपनी कृपा को किसी आवाज़ में प्रकट कर
    5 ↑ स्वर माधुर्य,स्वरावली
    6 ↑ साज़ की चुप्पी के पर्दे
    7 ↑ टूटा हुआ
    8 ↑ और भी अधिक प्रिय
    9 ↑ शीशागर की दृष्टि
    10 ↑ शरण
    11 ↑ मेरे भटकाव के अपराध के लिए
    12 ↑ दया मय, कृपालू पैरों
    13 ↑ अयाज़ की ज़ुल्फों की लटें भी उतनी घुंघराली नहीं रहीं
    14 ↑ प्रार्थना के लिए सर झुकाया
    15 ↑ पुकार
    16 ↑ हृदय से मूर्ति-पूजक